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सिनेमा

भारतीय फिल्म-उद्योग : फाल्के और फलक

संजीव


कथा-कथन या अभिव्यक्ति की प्राचीनतम विधा भाषा और श्रुति हैं तो नव्यतम है सिनेमा। सौ साल में ही सन 1911 की टेक्नोलॉजी ने देखते ही देखते न सिर्फ अभिव्यक्ति की सारी विधाओं को पीछे छोड़ दिया बल्कि जबर्दस्त लोकप्रियता भी हासिल कर ली। 1849 में स्टिल फोटोग्राफी का विकास होता है और 1889 में इन स्थिर चित्रों को सचल करने की तकनीक हासिल हो जाती है। सन 1911 में दादा साहब फाल्के इस तकनीक के विकासक्रम में पहली भारतीय फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' का निर्माण करते हैं- मूक फिल्म रिलीज होती है 1913 में। थोड़े ही अंतराल पर मूक फिल्में बोलने लगती हैं। अपने यहाँ इसका श्रेय 1913 में 'आलम आरा' को जाता है। तब से आज तक तकनीक विकसित होती रही और 30 अप्रैल 1870 को जन्मे फाल्के का फलक कहाँ से कहाँ जा पहुँचा। लेकिन फाल्के की आत्मा...

बनाने को दादा साहब फाल्के भी इस विधा को पैसा कमाऊ मनोरंजन का माध्यम बना सकते थे, मगर उन्हें लगा कि इस सशक्त माध्यम का उपयोग चरित्र निर्माण में ही किया जाना चाहिए। आज का हाल यह है कि यह माध्यम पैसे कमाने का जरिया बन चुका है। शाहरुख खान की 'चेन्नई एक्सप्रेस' ने बॉक्स आफिस के पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं, एक छिछली मनोरंजक फिल्म ने रिकार्ड तोड़ दिया है और प्रचार की आँ धी बहती फूली नहीं समा रही है। ऐसी आँ धियों में कोई उन फिल्मों या टी.वी. सीरियलों की बात नहीं करता जो चरित्र निर्माण या बेहतर इंसान बनाने का स्वस्थ्य मनोरंजन देती हैं। कहाँ गई ऋषिकेश मुखर्जी की 'सत्यकाम' जैसी सैकड़ों उत्कृष्ट फिल्में क्यों नहीं हो पाईं प्रोमोट। क्यों बंद हो गए 'भारत एक छाप' और 'उपन्यास' जैसे उम्दा सीरियल किसने बना दिया किसानों की आत्महत्या जैसे बेहद संजीदा मसले को 'पिपली लाइव' जैसी हल्की फिल्में, (गो, उसमें मीडिया के रोल को एक्सपोज भी किया गया, पर वैसे मर्मांतक मसले पर हम वैसी ही फिल्म की अपेक्षा कर सकते थे)। पिंडारियों के बारे में हम सबको पता है कि वे टिड्डियों के दल की तरह टूट पड़ने वाले अपराधी लुटेरे थे, उस पर सलमान खान ने कहानी लिखी और फिल्म बनाई, 'वीर' जो पिंडारियों के कलंकित यथार्थ को धवल बनाती है- सत्य का विरूपण। मेरी बड़ी इच्छा थी कि 'फरार' देखूँ, देखूँ कि अभिनेता सलमान कैसी कहानी लिखते हैं, लेकिन जब उसके बारे में सुना तो इच्छा मर गई। अंबानी बंधु, सलमान, शाहरुख, आमिर खान, प्रकाश झा, चोपड़ा परिवार, संजय लीला भंसाली आदि के पास प्रचुर पैसा है और भारतीय वांङ्मय में अच्छी, कहानियों की भी कोई कमी नहीं, पर इस पर पैसा खर्च करना फिजूल समझते हैं। वे पैसे वहीं खर्च करेंगे जहाँ एक का दस बनाया जा सके। पैसों के अभाव में राष्ट्रपति की स्वर्णकमल विजेता फिल्म 'चोख', स्मिता पाटिल की अंतिम फिल्म 'देव शिशु' और रवींद्रनाथ टैगोर सिरीज की नायाब फिल्म, 'अपरिचित' बनाने वाले प्रख्यात निर्देशक उत्पलेंदु चक्रवर्ती आगे कोई फिल्म न बना सके। मित्र थे। कुल्टी' (प.बँगाल) में मेरे घर आए तो एक ही तलाश थी - फाइनेंसर की। वे जिस ढँग की दृष्टि संपन्न' स्तरीय फिल्में बनाते थे, उनके लिए मैं अपने इलाके से उन्हें कोई फाइनेंसर न दिला सका। आज कोलकाता की जाने किस अंधेरी गली में गुम हैं। उत्पलेंदु जैसी न जाने कितनी प्रतिभाएं कहाँ-कहाँ दम तोड़ रही है जबकि फिल्म का बाजार सजता जा रहा है।

हिंदी सिनेमा या कहें भारत की मुख्यधारा के सिनेमा में कुछ एक अपवादों को छोड़ दें तो करोड़ों के इतराते बजट में सबसे ज्यादा मिलता है अभिनेता, अभिनेत्री, संगीत निर्देशक, नृत्य निर्देशक, मारपीट के दृश्यों के निर्देशक, आइटम सांग्स... आदि को। फिल्म के बजट का एक बड़ा भाग जाया होता है प्रोमोशन या प्रचार पर। इस पूरे आयोजन-प्रयोजन में सबसे उपेक्षित चीज है कहानी, स्टोरी, जिस पर फिल्म का विशाल रंगारंग जलसाघर खड़ा होता है। स्टोरी भी कोई सिर खपाने की चीज है भला। हर बड़े फिल्मकार का एक अपना स्टोरी डिपार्टमेंट होता है, जिसमें पूरे विश्व की बौद्धिक संपदा से चुन-चोंथ कर कहानी सजा देने वाले उसके श्रमिक-लेखक बैठे हैं (श्रमिक मधुमक्खियों की तरह जो बांझ या नपुंसक होती हैं) कभी-कभी आप जिस फिल्म को कथा का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार पाते हुए देख रहे होते हैं, वह दरअसल इन्हीं श्रमिक मधुमक्खियों का संग्रहीत मधु होता है, उनका नहीं, जिनका नाम बिक रहा है। इनमें से कुछ तो परले दर्जे के 'जो हुक्म मेरे आका' वाले या शेखचिल्ली होते हैं। सुन लिया कि एक अच्छी फिल्म बनकर आई है बस उसके रिलीज होने में अड़ंगा लगाकर आनन-फानन में उसकी भोंडी नकल बाजार में उतार दी। कई नाम आप भी जानते होंगे। इधर मुंबई के मेरे एक नए फिल्मकार मित्र फाइनेंस कंपनियों और चिटफंड आदि की धांधली पर एक फिल्म डिस्कस कर ही रहे थे, कि उसी विषय पर एक बेहद मजाकिया छिछली फिल्म आ गई। शायद कहीं अन्यत्र सलाह मशविरा लेते समय किसी शातिर ने सुन ली थी।

वैसे भी साहित्यिक कृतियों या क्लासिक्स पर फिल्में बनाने में पैसे लगाने का मतलब लोग पैसा डुबाना मानते हैं। या तो उसमें ग्लैमर या कॉमर्शियल फिल्म की चाशनी डालिए या संतोष करके बैठिए। विज्जी की दुविधा (बाद में पहेली), 'चरणदास चोर', 'परिणति' में 'पहेली' प्रेमचंद की 'मजदूर', 'हीरा मोती', 'गबन', 'गोदान', 'सदगति', 'शतरंज के खिलाड़ी' में 'हीरा मोती', 'भगवतीचरण वर्मा' की चित्रलेखा में दूसरी बार बनी 'चित्रलेखा', फणीश्वरनाथ रेणु की 'तीसरी कसम' और महाश्वेता देवी की बाँग्ला की कहानी पर हिंदी फिल्म 'रूदाली', आर.के. नारायण की कहानी पर विजय आनंद की 'गाइड', बाँग्ला लेखक जरासंघ की 'लौह कपाट' पर विमल राय की 'बंदिनी' जैसी कुल जमा दर्जन भर कहानियाँ ही सफल फिल्मों में कायांतरित हो पाई हैं। 'सफल' का मतलब लोकप्रियता या बॉक्स ऑफिस। किसी हद तक मन्नू भंडारी की 'रजनीगंधा' और राजेंद्र यादव की 'सारा आकाश' भी। शैवाल की कथा पर बनी 'दामुल' ने तो राष्ट्रपति का स्वर्ण कमल भी जीता पर इसका श्रेय प्रकाश झा ले गए, शैवाल नहीं। अमृता प्रीतम के उपन्यास पर बनी 'पिंजर' कोई करिश्मा न कर सकी। यही हाल रहा निर्मल वर्मा की कहानी पर आधारित फिल्म 'माया दर्पण का।' काशीनाथ सिंह की 'काशी का अस्सी' अभी तक रिलीज नहीं हो पाई। बनने को तो हिंदी की कालजयी कहानी चंद्रधर शर्मा गुलेरी की 'उसने कहा था' धर्मवीर भारती के उपन्यास 'गुनाहों के देवता' और 'सूरज का सातवां घोड़ा', विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास 'नौकर की कमीज' कहानी 'बोझ', 'पेड़ पर कमरा' पर मणि कौल ने फिल्में बनाई, एन.एस.डी. ने भी 'आदमी की औरत' और 'पेड़ पर कमरा' पर फिल्म बनाई, जिसे वेनिस फिल्म फेस्टीवल में पुरस्कार भी मिला। शिवमूर्ति की 'तिरिया चरित्तर', पर 'तिरिया चरित्र' प्रियंवद की कहानी पर 'अनवर', उदय प्रकाश की कहानी 'मोहनदास' पर 'मोहनदास' आदि भी बनीं। सैकड़ों पाइपलाइन में भी हैं, पच्चीसियों डिब्बे में बंद पर बॉक्स आफिस या जनसामान्य के मन-मस्तिष्क पर कोई छाप न छोड़ पाईं। एमिल जोला के महान उपन्यास 'जर्मिनल' पर बनी शत्रुघ्न सिन्हा की फिल्म 'कालका' को याद रखने वाले कितने हैं।

ऐसा क्यों होता है कि हिंदी में अच्छी कहानियों की ओर निर्माता-निर्देशक आकर्षित ही नहीं होते, होते भी है तो वह बात नहीं आ पाती। मेरा ख्याल है, फिल्म कहानीकार और निर्देशक दो बौद्धिक प्रतिभाओं का द्वंद्व है - conflict of two personalities से खिंच और पिट जाने का खतरा ज्यादा होता है। कहानी कहानीकार की एकल विधा है जबकि फिल्मकार की सामूहिक विधा। यह टकराहट दो प्रतिभाओं की ही नहीं दो विधाओं की भी होती है। फिल्म को निर्देशक के ऊपर छोड़ा जाना ही श्रेयस्कर होता है। अक्सर देखा गया है कि कमजोर कहानियों पर ही ज्यादा अच्छी फिल्में बनी हैं। फिर जनता मनोरंजन चाहती है, पैसा लगाने वाले अपना मुनाफा। ऐसे में कहानीकार का अपनी कहानी की शुद्धता की माँग की टेक पर अड़ा रहना कहाँ तक समीचीन है। कोई बीच का रास्ता निकालना होगा - 'रामकाज कछु मोरनिहोरा'...। केतन मेहता की 'मिर्च मसाला', असित सेन और ऋषिकेश मुखर्जी तथा अतीत के विमल राय और वी. शांताराम की फिल्में कुछ मॉडल्स हो सकती हैं। 24 कैरेट सोने से अच्छा आभूषण नहीं बनता (अभी हमारी वृहतर आबादी का वह संस्कार नहीं बना है), उसमें कुछ खाद मिलानी पड़ती है। अफसोस, अब खाद ही ज्यादा है, सोना कहने भर का ही।

सब कुछ ठीक-ठाक हो, तो भी फिल्म बनने और उसके सफल होने का मामला प्रचार, प्रोमोशन, समय और संयोग का मुहताज हो जाता है। इतने बड़े फिल्म उद्योग में कहाँ क्या चल रहा है, पूरी तरह जानने का दावा करना भी बड़बोलापन है। मैं अपने उदाहरण से कुछ समझने की कोशिश करता हूँ :

1. मेरी कहानी 'फुलवा का पुल' और जीलानी बानो की एक उर्दू कहानी को मिलाकर श्याम बेनेगल ने भ्रष्टाचार पर एक फिल्म बनाई 'वेल डन अब्बा', मेरी कहानी दाल में नमक के बराबर थी। यूँ श्याम बेनेगल की दृष्टि और आँ चलिक संस्पर्श पर आप मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते।

2. जी.टी.वी. ने एक फिल्म बनाई थी 'काला हीरा' जो मेरे उपन्यास कोयला खान दुर्घटना के उपन्यास 'सावधान नीचे आग है' के एक अंश पर आधारित थी। कोयले पर फिल्म निर्देशक को निर्देश दिए गए थे कि कालापन न दिखे... हाँ कुछ 'लव-वव' डाल सकें तो बेहतर।

3. एन.एस.डी. ने 'अपराध' पर फिल्म - बनाई जो किसी काम की नहीं थी। मुख्य वजह बजट का अभाव।

4. प्रकाश झा ने 'हिमरेखा' को फीचर फिल्म के लिए अनुबंधित किया, करार के पैसे भी दे दिए पर फिल्म प्रोड्यूसर और निर्देशक के झगड़े के बीच झूल गई वह अभिशप्त अहिल्या।

5. अरविंद सिन्हा ने एक कहानी ली, 'डोमकच' (औरतों के रतजगा) पर मगर पैसे लगाने वालों से संयोग नहीं बैठ पाया। वे उसकी अहमियत को समझ ही न पाए। लेखक को पैसे देना नागवार लग रहा था।

6. 'तीसरी कसम' के रीमेक की स्क्रिप्ट भी धूल खा रही है। एक आह-सी उठती है। बड़ी मेहनत से लिखी थी। भाई उमाशंकर सिंह सहयोगी थे, अब शायद सलमान खान के साथ हैं।

7. ऐसी ही कुछ और कहानियाँ , उपन्यास और चीजें... पर अपना दर्द तब नगण्य लगने लगता है, जब मैं उस इतिहास पुरुष के दर्द को याद करता हूँ। 95 बड़ी और 26 छोटी फिल्में बनाने वाले प्रथम भारतीय फिल्मकार दादासाहब फाल्के के अंतिम दिन मुफलिसी में गुजरे और सुनते हैं कि सन 1944 में जबकि वे अपनी पूरी सामर्थ्य लगाकर अपनी सबसे सशक्त फिल्म बनाने वाले थे तत्कालीन केंद्र सरकार ने फिल्म निर्माण के लिए लाइसेंस लेने का प्रावधान अनिवार्य कर दिया। फाल्के साहब ने लाइसेंस के लिए आवेदन किया। राष्ट्रीयता का दौर था या कोई अन्य कारण, उनका आवेदन अस्वीकृत हो गया। भारतीय फिल्मों के जनक का आवेदन नामंजूर। यह सदमा वे बर्दाश्त न कर सके और 4-6 दिन बाद 16 फरवरी 1944 को इस बेरहम जहाँ से कूच कर गए।

(लेखक वरिष्ठ कथाकार हैं)


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